तेजाजी का समकालीन इतिहास

मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले

संत श्री कान्हाराम[17] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-43]: श्री वीर तेजाजी के इतिहास को सही माने में समझने के लिए उनकी समकालीन तथा आगे-पीछे की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना अति आवश्यक है। उस समय की परिस्थितियों में जाए बिना हम तेजाजी के इतिहास को सम्यकरूप से नहीं समझ सकते हैं।

लोग जोधपुर व जोधपुर के राजदरबार एवं स्थानीय ठाकुरों के संदर्भ तथा उनकी राजनीतिक व्यवस्थाओं से जोड़कर तेजाजी के इतिहास को अनुमान के चश्मों से देखने की कोशिश करेते हैं। ठीक इसी प्रकार शहर पनेर के इतिहास को किशनगढ़ राजदरबार की व्यवस्थाओं से जोड़कर देखते हैं।

तेजाजी के बलिदान (1103 ई.) के 356 वर्ष बाद, राव जोधा ने जोधपुर की स्थापना की थी। किशनगढ़ की स्थापना 506 वर्ष बाद (1609 ई.) हुई। तेजाजी के समय तक राजस्थान में राठौड राजवंश का उदय नहीं हुआ था।

ईसा की 13वीं शताब्दी के मध्य (1243 ई.) नें उत्तर प्रदेश के कन्नौजसे जयचंद राठोड का पौता रावसिहा ने नाडोल (पाली) क्षेत्र में आकर राठोड वंश की नींव डाली थी । राजस्थान में राठोड़ के मूल शासक रावसीहा की 8वीं पीढ़ी बाद के शासक राव जोधा ने 1459 ई. में जोधपुर की स्थापना की थी। इसके पूर्व राव जोधा के दादा राव चुंडाने 1384-1428 ई. के बीच जोधपुर के पास प्रतिहारों की राजधानी मंडोर पर आधिपत्य जमा लिया था।

किशनगढ़ की स्थापना राव जोधा की 6 ठवीं पीढ़ी बाद के शासक उदय सिंह के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में की थी। उन्हें यह किशनगढ़ अपने जीजा बादशाह जहांगीर द्वारा अपने भांजे खुर्रम (शाहजहां) के जन्म के उपलक्ष में उपहार स्वरूप मिला था।


[पृष्ठ-44]:तेजाजी का ससुराल शहर पनेर एवं वीरगति धाम सुरसुरादोनों गाँव वर्तमान व्यवस्था के अनुसार किशनगढ़ तहसील में स्थित है। किशनगढ़ अजमेर जिले की एक तहसील है, जो अजमेर से 27 किमी दूर पूर्व दिशा में राष्ट्रिय राजमार्ग 8 पर बसा है। प्रशासनिक कार्य किशनगढ़ से होता है और कृषि उत्पादन एवं मार्बल की मंडी मदनगंज के नाम से लगती है। आज ये दोनों कस्बे एकाकार होकर एक बड़े नगर का रूप ले चुके हैं। इसे मदनगंज-किशनगढ़ के नाम से पुकारा जाता है।

तेजाजी की वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा किशनगढ़ से 16 किमी दूर उत्तर दिशा में हनुमानगढ़ मेगा हाईवे पर पड़ता है। शहर पनेर भी किशनगढ़ से 32 किमी दूर उत्तर दिशा में पड़ता है। अब यह केवल पनेर के नाम से पुकारा जाता है। पनेर मेगा हाईवे से 5 किमी उत्तर में नावां सिटी जाने वाले सड़क पर है।

रियासत काल में कुछ वर्ष तक किशनगढ़ की राजधानी रूपनगर रहा था, जो पनेर से 7-8 किमी दक्षिण-पूर्व दिशा में पड़ता है।


[पृष्ठ-45]: जहा पहले बबेरा नामक गाँव था तथा महाभारत काल में बहबलपुर के नाम से पुकारा जाता था। अब यह रूपनगढ तहसील बनने जा रहा है।

तेजाजी के जमाने (1074-1103 ई.) में राव महेशजी के पुत्र राव रायमलजी मुहता के अधीन यहाँ एक गणराज्य आबाद था, जो शहर पनेर के नाम से प्रसिद्ध था। उस जमाने के गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता नागवंश की अग्निवंशी चौहान शाखा के नरपति गोविन्ददेव तृतीय(1053 ई.) के हाथ थी। तब गोविंददेव की राजधानी अहिछत्रपुर(नागौर) से शाकंभरी (सांभर) हो चुकी थी तथा बाद में अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। रूपनगढ़ क्षेत्र के गांवों में दर्जनों शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन पर लिखा है विक्रम संवत 1086 गोविंददेव


[पृष्ठ-46]: किशनगढ़ के स्थान पर पहले सेठोलाव नामक नगर बसा था। जिसके भग्नावशेष तथा सेठोलाव के भैरुजी एवं बहुत पुरानी बावड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आज भी मौजूद है। सेठोलाव गणराज्य के शासक नुवाद गोत्री जाट हुआ करते थे। ऐसा संकेत राव-भाटों की पोथियों व परम्पराओं में मिलता है। अकबर के समय यहाँ के विगत शासक जाट वंशी राव दूधाजी थे। गून्दोलाव झील व हमीर तालाब का निर्माण करवाने वाले शासक का नाम गून्दलराव था। यह शब्द अपभ्रंस होकर गून्दोलाव हो गया। हम्मीर राव ने हमीरिया तालाब का निर्माण करवाया था। सेठोजी राव ने सेठोलाव नगर की स्थापना की थी।

पुराने शासकों की पहचान को खत्म करने के लिए राजपूत शासकों द्वारा पूर्व के गांवों के नाम बदले गए थे। राठौड़ शासक किशनसिंह ने सेठोलाव का नाम बदलकर कृष्णगढ़ रख दिया।


[पृष्ठ-46]: नागदुर्ग के पुनः नव-निर्माण का श्री गणेश गोविन्दराज या गोविन्ददेव तृतीय के समय (1053 ई. ) अक्षय तृतीय को किया गया। गोविंद देव तृतीय के समय अरबों–तुर्कों द्वारा दखल देने के कारण चौहनों ने अपनी राजधानी अहिछत्रपुर से हटकर शाकंभरी (सांभर) को बनाया। बाद में और भी अधिक सुरक्षित स्थान अजमेर को अजमेर (अजयपाल) ने 1123 ई. में अपनी राजधानी बनाया। यह नगर नाग पहाड़ की पहाड़ियों के बीच बसाया था। एक काफी ऊंची पहाड़ी पर “अजमेर दुर्ग” का निर्माण करवाया था। अब यह दुर्ग “तारागढ़” के नाम से प्रसिद्ध है।


पृष्ठ-79]: तेजाजी का जन्म चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंददेव तृतीय के समय में हुआ था। तब मुसलमानों की दाखल के कारण गोविंद देव तृतीय ने अपनी राजधानी नागौर से सांभर स्थानांतरित करली थी और नागौर का क्षेत्र तनावग्रस्त सा हो गया था। इसी समय 1074 – 1085 ई. के बीच तेजाजी के पिता ताहड़देव की मृत्यु हो चुकी थी। तेजाजी के पिता 24 गाँव के समूह खरनाल गणराज्य के गणपति थे। उनकी मृत्यु होने पर तेजाजी के दादा बोहित राज (बक्सा जी) गणराज्य एवं तेजाजी के संरक्षक की भूमिका निभा रहे थे। इन गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता सांभर के चौहानों के हाथ थी।


[पृष्ठ-80]: उस काल में मरुधर के अंतर्गत नागवंशी जाटों के नेतृत्व में अनेक गणराज्य संचालित थे। गुजरात में गुर्जरों के नेतृत्व में, हाड़ौतीमें गुर्जर और मीनों के नेतृत्व में। मेरवाड़ा (मेवाड़) में मेरों के, भीलवाडा एवं कोटा क्षेत्र में भीलों के नेतृत्व में गणराज्य चला करते थे।

तेजाजी के पूर्वज मूलतः नागवंश की मालवा शाखा के श्वेतनाग के वंशज थे। भैरूराम भाट डेगाना की पौथी के अनुसार ये नागवंश की चौहान खांप (शाखा) की उपशाखा खींची नख के धौलिया गोत्र के जाट थे। श्वेतनाग (धौलानाग) के नाम पर धौल्या गोत्र बना। धवलपालइनके पूर्वज थे।

तेजाजी के जन्म के समय की स्थिति - [पृष्ठ-79]: तेजाजी का जन्म चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंददेव तृतीय के समय में हुआ था। तब मुसलमानों की दाखल के कारण गोविंद देव तृतीय ने अपनी राजधानी नागौर से सांभर स्थानांतरित करली थी और नागौर का क्षेत्र तनावग्रस्त सा हो गया था। इसी समय 1074 – 1085 ई. के बीच तेजाजी के पिता ताहड़देव की मृत्यु हो चुकी थी। तेजाजी के पिता 24 गाँव के समूह खरनाल गणराज्य के गणपति थे। उनकी मृत्यु होने पर तेजाजी के दादा बोहित राज (बक्सा जी) गणराज्य एवं तेजाजी के संरक्षक की भूमिका निभा रहे थे। इन गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता सांभर के चौहानों के हाथ थी।


[पृष्ठ-80]: उस काल में मरुधर के अंतर्गत नागवंशी जाटों के नेतृत्व में अनेक गणराज्य संचालित थे। गुजरात में गुर्जरों के नेतृत्व में, हाड़ौतीमें गुर्जर और मीनों के नेतृत्व में। मेरवाड़ा (मेवाड़) में मेरों के, भीलवाडा एवं कोटा क्षेत्र में भीलों के नेतृत्व में गणराज्य चला करते थे।

तेजाजी के पूर्वज मूलतः नागवंश की मालवा शाखा के श्वेतनाग के वंशज थे। भैरूराम भाट डेगाना की पौथी के अनुसार ये नागवंश की चौहान खांप (शाखा) की उपशाखा खींची नख के धौलिया गोत्र के जाट थे। श्वेतनाग (धौलानाग) के नाम पर धौल्या गोत्र बना। धवलपालइनके पूर्वज थे।


[पृष्ठ-84]: तेजाजी के जन्म के समय (1074 ई.) यहाँ मरुधरा में छोटे-छोटे गणराज्य आबाद थे। तेजाजी के पिता ताहड़ देव (थिरराज) खरनाल गणराज्य के गणपति थे। इसमें 24 गांवों का समूह था। तेजाजी का ससुराल पनेर भी एक गणराज्य था जिस पर झाँझर गोत्रके जाट राव रायमल मुहता का शासन था। मेहता या मुहता उनकी पदवी थी। उस समय पनेर काफी बड़ा नगर था, जो शहर पनेर नाम से विख्यात था। छोटे छोटे गणराज्यों के संघ ही प्रतिहार व चौहान के दल थे जो उस समय के पराक्रमी राजा के नेतृत्व में ये दल बने थे।


[पृष्ठ-85]: पनैरजाजोता व रूपनगर गांवों के बीच की भूमि में दबे शहर पनेर के अवशेष आज भी खुदाई में मिलते हैं। आस पास ही कहीं महाभारत कालीन बहबलपुर भी था। पनेर से डेढ़ किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में रंगबाड़ी में लाछा गुजरी अपने पति परिवार के साथ रहती थी। लाछा के पास बड़ी संख्या में गौ धन था। समाज में लाछा की बड़ी मान्यता थी। लाछा का पति नंदू गुजर एक सीधा साधा इंसान था।

तेजाजी की सास बोदल दे पेमाल का अन्यत्र पुनःविवाह करना चाहती थी, उसमें लाछा बड़ी रोड़ा थी। सतवंती पेमल अपनी माता को इस कुकर्त्य के लिए साफ मना कर चुकी थी। खरनाल व शहर पनेरगणराजयों की तरह अन्य वंशों के अलग-अलग गणराज्य थे। तेजाजी का ननिहाल त्योद भी एक गणराज्य था। जिसके गणपति तेजाजी के नानाजी दूल्हण सोढ़ी (ज्याणी) प्रतिष्ठित थे। ये सोढ़ी पहले पांचालप्रदेश अंतर्गत अधिपति थे। ऐतिहासिक कारणों से ये जांगल प्रदेश के त्योद में आ बसे। सोढ़ी से ही ज्याणी गोत्र निकला है।

पनेर के निकटवर्ती गाँव थलसिणगारारघुनाथपुराबाल्यास का टीबा स्थित सांभर के चौहान शासक गोविंददेव तृतीय (1053 ई.) के समय के शिलालेख, जो कि तेजाजी के समकालीन था

इन सभी गणराजयों की केंद्रीय सत्ता गोविंददेव या गोविंदराज तृतीय चौहान की राजधानी सांभर में निहित थी। इसके प्रमाण इतिहास की पुस्तकों के साथ-साथ यहाँ पनेररूपनगर के क्षेत्र के गांवों में बीसियों की संख्या में शिलालेख के रूप में बिखरे पड़े हैं। थलसिणगारारघुनाथपुरारूपनगढबाल्यास का टीबाजूणदा आदि गांवों में एक ही प्रकार के पत्थर पर एक ही प्रकार की बनावट व लिखावट वाले बीसियों शिलालेख बिलकुल सुरक्षित स्थिति में है।


[पृष्ठ-86]: इन शिलालेख के पत्थरों की घिसावट के कारण इन पर लिखे अक्षर आसानी से नहीं पढे जाते हैं। ग्राम थल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित दो शिलालेखों से एक की लिखावट का कुछ अंश साफ पढ़ा जा सका, जिस पर लिखा है – विक्रम संवत 1086 गोविंददेव ।

मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले

रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 लिखा हुआ है। जो तत्कालीन इतिहास को जानने के लिए एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। इन शिलालेखों पर गहन अनुसंधान आवश्यक है।


[पृष्ठ-87]: रूपनगढ क्षेत्र के रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तारबाना ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था।

राष्ट्रीय राजमार्ग – 8 पर स्थित मंडावरिया गाँव की पहाड़ी के उत्तर पूर्व में स्थित तेजाजी तथा मीना के बीच हुई लड़ाई के रणसंग्राम स्थल पर भी हल्के गुलाबी पत्थर के शिलालेखों पर खुदाई मौजूद है। पुरातत्व विभाग के सहयोग से आगे खोज की आवश्यकता है।

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