तेजाजी के पूर्वजों का इतिहास
पाणिनी (500 ई.पू.) को जाटों की शासन प्रणाली का ज्ञान था। तभी उन्होने अष्टाध्यायी (III.3.19) व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर जट झट संघाते सूत्र बना दिया. जाट शब्द एक संघ के रूप में परिभाषित हुआ है। संस्कृत के ‘जट’ धातु से ही हिन्दी का ‘जाट’ शब्द बना है। पाणिनी द्वारा अष्टाध्यायी में यौधेयादि (IV.1.178,V.3.116-17) जनपदों के अंतर्गत अनेक आयुधजीवी संघों का वर्णन किया है। यथा – 1. शौभ्रेय (IV.1.123) जो संस्कृत के शुभ्र से बना है और राजस्थानी में धोलिया कहलाते हैं। ये चिनाब नदी के निचले भूभाग में बसे थे जहां रवी नदी इसमें मिलती है। इनका प्रजातांत्रिक गणराज्य था। इनका सामना सिकंदर से लौटते में हुआ था।[4] शुभ्र का उल्लेख महाभारत के शल्य पर्व में भी होता है। (IX.45.8)
संत श्री कान्हाराम[5] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-62] : रामायण काल में तेजाजी के पूर्वज मध्यभारत के खिलचीपुर के क्षेत्र में रहते थे। कहते हैं कि जब राम वनवास पर थे तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। बाद में राजनैतिक कारणों से तेजाजी के पूर्वज खिलचीपुर छोडकर पहले गोहद आए वहाँ से धौलपुर आए थे। तेजाजी के वंश में सातवीं पीढ़ी में तथा तेजाजी से पहले 15वीं पीढ़ी में धवल पाल हुये थे। उन्हीं के नाम पर धौलिया गोत्र चला। श्वेतनागही धोलानाग थे। धोलपुर में भाईयों की आपसी लड़ाई के कारण धोलपुर छोडकर नागाणा के जायल क्षेत्र में आ बसे।
[पृष्ठ-63]: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु के पास) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 24 गांवों के खरनाल गणराज्य का क्षेत्रफल काफी विस्तृत था। तब खरनाल का नाम करनाल था, जो उच्चारण भेद के कारण खरनाल हो गया। उपर्युक्त मध्य भारत खिलचीपुर, गोहाद, धौलपुर, नागाणा, जायल, धौली डेह, खरनाल आदि से संबन्धित सम्पूर्ण तथ्य प्राचीन इतिहास में विद्यमान होने के साथ ही डेगाना निवासी धौलिया गोत्र के बही-भाट श्री भैरूराम भाट की पौथी में भी लिखे हुये हैं।
तेजाजी के पूर्वज और जायल के कालों में लड़ाई: संत श्री कान्हाराम[6] ने लिखा है कि.... जायल खींचियों का मूल केंद्र है। उन्होने यहाँ 1000 वर्ष तक राज किया। नाडोल के चौहान शासक आसराज (1110-1122 ई.) के पुत्र माणक राव (खींचवाल) खींचीशाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। तेजाजी के विषय में जिस गून्दल रावएवं खाटू की सोहबदे जोहियानी की कहानी नैणसी री ख्यात के हवाले से तकरीबन 200 वर्ष बाद में पैदा हुआ था।
[पृष्ठ-158]: जायल के रामसिंह खींची के पास उपलब्ध खींचियों की वंशावली के अनुसार उनकी पीढ़ियों का क्रम इस प्रकार है- 1. माणकराव, 2. अजयराव, 3. चन्द्र राव, 4. लाखणराव, 5. गोविंदराव, 6. रामदेव राव, 7. मानराव 8. गून्दलराव, 9. सोमेश्वर राव, 10. लाखन राव, 11. लालसिंह राव, 12. लक्ष्मी चंद राव 13. भोम चंद राव, 14. बेंण राव, 15. जोधराज
गून्दल राव पृथ्वी राज के समकालीन थे।
यहाँ जायल क्षेत्र में काला गोत्री जाटों के 27 खेड़ा (गाँव) थे। यह कालानाग वंश के असित नाग के वंशज थे। यह काला जयलों के नाम से भी पुकारे जाते थे। यह प्राचीन काल से यहाँ बसे हुये थे।
तेजाजी के पूर्वज राजनैतिक कारणों से मध्य भारत (मालवा) के खिलचिपुर से आकर यहाँ जायल के थली इलाके के खारिया खाबड़ के पास बस गए थे। तेजाजी के पूर्वज भी नागवंश की श्वेतनाग शाखा के वंशज थे। मध्य भारत में इनके कुल पाँच राज्य थे- 1. खिलचिपुर, 2. राघौगढ़, 3. धरणावद, 4. गढ़किला और 5. खेरागढ़
राजनैतिक कारणों से इन धौलियों से पहले बसे कालाओं के एक कबीले के साथ तेजाजी के पूर्वजों का झगड़ा हो गया। इसमें जीत धौलिया जाटों की हुई। किन्तु यहाँ के मूल निवासी काला (जायलों) से खटपट जारी रही। इस कारण तेजाजी के पूर्वजों ने जायल क्षेत्र छोड़ दिया और दक्षिण पश्चिम ओसियां क्षेत्र व नागौर की सीमा क्षेत्र के धोली डेह (करनू) में आ बसे। यह क्षेत्र भी इनको रास नहीं आया। अतः तेजाजी के पूर्वज उदय राज (विक्रम संवत 1021) ने खरनालके खोजा तथा खोखर से यह इलाका छीनकर अपना गणराज्य कायम किया तथा खरनाल को अपनी राजधानी बनाया। पहले इस जगह का नाम करनाल था। यह तेजाजी के वंशजों के बही भाट भैरू राम डेगाना की बही में लिखा है।
तेजाजी के पूर्वजों की लड़ाई में काला लोगों की बड़ी संख्या में हानि हुई थी। इस कारण इन दोनों गोत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी कायम हो गई। इस दुश्मनी के परिणाम स्वरूप जायलों (कालों) ने तेजाजी के इतिहास को बिगाड़ने के लिए जायल के खींची से संबन्धित ऊल-जलूल कहानियाँ गढ़कर प्रचारित करा दी । जिस गून्दल राव खींची के संबंध में यह कहानी गढ़ी गई उनसे संबन्धित तथ्य तथा समय तेजाजी के समय एवं तथ्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से ऊपर बताए अनुसार मेल नहीं बैठता है।
बाद में 1350 ई. एवं 1450 ई. में बिड़ियासर जाटों के साथ भी कालों का युद्ध हुआ था। जिसमें कालों के 27 खेड़ा (गाँव) उजाड़ गए। यह युद्ध खियाला गाँव के पास हुआ था।
[पृष्ठ-159]: यहाँ पर इस युद्ध में शहीद हुये बीड़ियासारों के भी देवले मौजूद हैं। कंवरसीजी के तालाब के पास कंवरसीजी बीड़ियासर का देवला मौजूद है। इस देवले पर विक्रम संवत 1350 खुदा हुआ है। अब यहाँ मंदिर बना दिया है। तेजाजी के एक पूर्वज का नाम भी कंवरसी (कामराज) था।
इन्दरगढ़ के धूलिया शासक: जाट इतिहासकर रामसरूप जून[7] ने करनाल जिले की इंद्री तहसील में इन्दरगढ़ के धूलिया शासन का उल्लेख किया है। इस परिवार के बद्रसेन नाम के एक शासक झज्जरजिले में बादली के अधिपति थे तथा वे पृथ्वीराज चौहान के एक अधिकारी थे। चौहानों से पहले भादरा, अजमेर और इन्दरगढ़ में गोरजाटों का शासन था। बद्रसेन के परिवार में बोदली नामक महिला के नाम से यह गाँव बादली कहलाया। गाँव बादली में संत सारंगदेव की समाधि है जिसकी पूजा की जाती है।
पूर्वी भारत में धवलदेव का राज्य: तेजाजी के पूर्वज नागवंश की श्वेतनाग शाखा से निकली जाट शाखा से थे। श्वेतनाग ही धौलिया नाग था जिसके नाम पर तेजाजी के पूर्वजों का धौलिया गोत्र चला। इस वंश के आदि पुरुष महाबल थे जिनसे प्रारम्भ होकर तेजाजी की वंशावली में 21 वीं पीढ़ी में तेजाजी पैदा हुये। यदि एक पीढ़ी की उम्र 30 वर्ष मानी जावे तो महाबल का समय करीब 500 ई. के आसपास बैठता है। यह गुप्त साम्राज्य (320 - 540 ई.) के अंत के निकट का समय है। गुप्त साम्राज्य भारत में स्वर्णयुग माना गया है। गुप्त साम्राज्य के शासकों को इतिहासकारों यथा के पी जायसवाल[8][9], भीम सिंह दहिया[10], हुकुम सिंह पँवार[11], तेजराम शर्मा[12], बी जी गोखले[13] दलीप सिंह अहलावत[14] आदि द्वारा जाट वंश का माना गया है। तेजाजी के धौल्या वंश के आदि पुरुष महाबल संभवतः गुप्त साम्राज्य के अधीन उड़ीसा में कलिंग के आस-पास किसी भू-भाग के अधिपति थे। अशोक महान के काल में उस भू-भाग में अनेक जाटवंशी राजाओं के शासक होने के प्रमाण हैं। धौल्या वंश के वहाँ शासक होने का प्रमाण दया नदी के किनारे धोली पहाड़ी के रूप में है। धोली पहाड़ी भूबनेश्वर से 8 किमी दूर है और वहाँ पर एक बड़ा बौद्ध स्तूप बना हुआ है। इसी के पास अशोक के शिलालेख लगे हैं जहां कलिंग युद्ध हुआ था। उड़ीसा में महानदी के किनारे कटक से 37 किमी दूर शिव का धवलेश्वर[15] नाम का एक बड़ा मंदिर है। डॉ नवल वियोगी [16] के अनुसार धवलदेव के शासन के अवशेष धलभूमगढ़ (पश्चिम बंगाल/झारखंड) और खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) में देखे जा सकते हैं। धलभूमगढ़ वस्तुतः धवल या धौल्या लोगों की भूमि के रूप में प्रयोग किया गया है। वहाँ की परंपरा के अनुसार स्थानीय राजा जगन्नाथदेव से धोलपुर (राजस्थान) के राजा द्वारा कब्जा कर लिया गया था।
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