Lok Devata Tejaji


तेजाजी महाराज
तेजाजी की विशाल प्रतिमा खरनाल

ठाकुर देशराज [1] ने लिखा है ... तेजाजी ग्यारवीं शताब्दी में ये महापुरुष मारवाड़ के खरनाल मोजे में पैदा हुए थे। इनका सारा समय परोपकार में अराजक मीणा जाति को दबाने में व्यतीत हुआ था। परोपकार ही में नाग द्वारा उनकी मृत्यु हुई थी। यह धौल्या गोत्र के जाट थे। राजपूताना की जोधपुरजयपुरकिशनगढ़ और कोटा आदि में इनकी सभी जातियां बड़ी श्रद्धा के साथ पूजा करती हैं। भादवा बदी दशमी को अनेकों स्थानों पर तेजाजी के नाम पर मेले लगते हैं। सारांश यह है कि राजपूताना में इनको शिव गणेश की भांति देवता समझा जाता है।

लोक देवता तेजाजी

तेजाजी मुख्यत: राजस्थान के लेकिन उतने ही उत्तरप्रदेशमध्यप्रदेशगुजरात और कुछ हद तक पंजाब के भी लोक-नायक हैं। अवश्य ही इन प्रदेशों की जनभाषाओं के लोक साहित्य में उनके आख्यान की अभिव्यक्ति के अनेक रूप भी मौजूद हैं। राजस्थानी का ‘तेजा’ लोक-गीत तो इनमें शामिल है ही। वे इन प्रदेशों के सभी समुदायों के आराध्य हैं। लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं। स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प-दंश से ही हुई थी। बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार की मार से अक्षत्‌ नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखने को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख कर उनके प्राण हर लिए थे।

लोक-नायक की जीवन-यात्रा एक नितान्त साधारण मनुष्य के रूप में शुरू होती है और वह किसी-न-किसी तरह के असाधारण घटनाक्रम में पड़ कर एक असाधारण मनुष्य में रूपान्तरित हो जाता है। उसकी कथा को कहने और सुनने वाला लोक ही उसे एक ऐसे मिथकीय अनुपात में ढाल देता है कि इतिहास के तथ्यप्रेमी चिमटे से तो वह पकड़ा ही नहीं जा सकता। मसलन तेजाजी जिस सर्प से अपनी जीभ पर दंश झेल कर अपनी वचनबद्धता निभाते हुए नायकत्व हासिल करते हैं, इतिहास में उसका तथ्यात्मक खुलासा कुछ यह कह कर दिया गया हैः जब तेजाजी पनेर से अपनी पत्नी के साथ लौट रहे थे उस समय उन पर मीना सरदारों ने हमला किया क्योंकि वे पहले इस नागवंशी राजा द्वारा हरा दिए गए थे।

लोकाख्यान का नाग इतिहास की चपेट में आकर नागवंशी मुखिया की गति को प्राप्त हो जाता है। लोक-नायकों का एक वर्ग ऐसा भी होता है, जिसमें वे जन-साधारण के परित्राता अथवा परित्राणकर्त्ता बन कर अपनी छवि का अर्जन करते हैं। वे जन-साधारण के पक्ष में, स्थापित शक्ति-तन्त्र के दमन और दुराचार से लोहा लेते हैं। इस वर्ग के लोक-नायक अक्सर, हमेशा नहीं, कुछ हद तक संस्थापित कानून की हदों से बाहर निकले हुए होते हैं।

तेजाजी के बलिदान की मूल कथा संक्षेप में इस प्रकार है।

तेजाजी का जन्म

नागदेव के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई

तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुवार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार 29 जनवरी, 1074, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। तेजाजी के नाना का नाम दुलन सोढी(ज्याणी) था। उनकी माता का नाम रामकुंवरी था। तेजाजी का ननिहाल त्यौद गाँव (किशनगढ़) में था।


संत श्री कान्हाराम[2] ने तेजाजी के जन्म का विवरण ऐतिहासिक प्रमाणों सहित विस्तार से निम्नानुसार लिखा है:

[पृष्ठ-160]: खरनाल परगना के जाट शासक (गणपति) बोहितराज के पुत्र ताहड़देव का विवाह त्योद (त्रयोद) के गणपति करसण जी (कृष्णजी) के पुत्र राव दुल्हण जी (दूलहा जी) सोढी (ज़्याणी) की पुत्री रामकुंवरी के साथ विक्रम संवत 1104 में समपन्न हुआ। त्योदग्राम अजमेर जिले के किशनगढ़ परगने में इससे 22 किमी उत्तर दिशा में स्थित है और किशनगढ़ अजमेर स 27 किमी पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर स्थित है।

विवाह के 12 वर्ष तक रामकुँवरी के कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी रामकुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया। यह दूसरा विवाह कोयलापाटन (अठ्यासान) निवासी अखोजी (ईन्टोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणो जी फिड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ विक्रम संवत 1116 में सम्पन्न करवा दिया। इस विवाह का उल्लेख बालू राम आदि फिड़ौदों के हरसोलाव निवासी बही-भाट जगदीश पुत्र सुखदेव भाट की पोथी में है।

द्वितीय पत्नी रामी के गर्भ से ताहड़ जी के रूपजीत (रूपजी) , रणजीत (रणजी), महेशजी, नगजीत ( नगजी) पाँच पुत्र उत्पन्न हुये।

राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नही होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 12 वर्ष की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तेजाजी के रूप में हुई एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई। यह नाग-बांबी आज भी तत्कालीन त्योद-पनेर के कांकड़ में मौजूद है। अब उस स्थान पर तेजाजी की देवगति धाम सुरसुरा ग्राम आबाद है। उस समय वहाँ घनघोर जंगल था। सुरसुरा में तेजाजी का मंदिर बना हुआ है जिसमें तेजाजी की स्वप्रकट मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसके सटाकर वह बांबी मौजूद है।

माता राम कुँवरी द्वारा नाग पूजा- [पृष्ठ-166]: ताहड़ देव का दूसरा विवाह हो गया । दूसरी पत्नी से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गई। किन्तु रामकुँवरी को महसूस हुआ कि उसकी हैसियत दोयम दर्जे की हो गई है। दो वर्ष 1116-1118 विक्रम संवत रामकुँवरी इस मनः स्थिति से गुजरी। रामकुँवरी ने पति ताहड़ देव से परामर्श किया और पति की आज्ञा से विक्रम संवत 1118 को अपने पीहर त्योद चली आई। त्योद में अपने माता-पिता के कुलगुरु संत मंगलनाथ की धुणी पर जाकर प्रार्थना की और अपना दुख बताया।


[पृष्ठ-167]: कुल गुरु ने रामकुँवरी को विधि विधान से नागदेव की पूजा-आराधना के निर्देश दिये। रामकुँवरी ने त्योद के दक्षिण में स्थित जंगल में नाड़े की पालपर खेजड़ी वृक्ष के नीचे नागदेव की बांबी पर पूजा-आराधना 12 वर्ष तक की। कहते हैं कि विक्रम संवत 1129अक्षय तृतीया को नागदेव ने दर्शन देकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।


[पृष्ठ-168]: तपस्या पूर्ण होने पर कुलगुरु मंगलनाथ की आज्ञा से रामकुँवरी अपने भाई हेमूजी के साथ ससुराल खरनाल पहुंची।


[पृष्ठ-170]: नागदेव का वरदान फला और विक्रम संवत 1130 की माघ सुदी चौदस गुरुवार तदनुसार 29 जनवरी 1074 ई. को खरनाल गणतन्त्र में ताहड़ देव जी के घर में शेषावतार लक्ष्मण ने तेजाजी के रूप में जन्म लिया। इस तिथि की पुष्टि भैरू भाट डेगाना की बही से होती है।


[पृष्ठ-171]: कहते हैं कि बालक के जन्म लेते ही महलों में प्रकाश फ़ैल गया। बालक के चेहरे पर प्रखर तेज दमक रहा था। दमकते चेहरे को देखकर पिता ताहड़ देव के मुख से सहसा निकला कि यह तो तेजा है। अतः जन्म के साथ ही तेजा का नामकरण हो गया। जोशी को बुलाकर नामकरण करवाया तो उसने भी नामकरण किया तेजा।

तेजाजी के जन्म के बारे में जन मानस के बीच प्रचलित एक राजस्थानी कविता के आधार पर मनसुख रणवा का मत है-

जाट वीर धौलिया वंश गांव खरनाल के मांय।
आज दिन सुभस भंसे बस्ती फूलां छाय।।
शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान।
सहस्र एक सौ तीस में, परकटे तेजा महान ॥

अर्थात - अवतारी तेजाजी का जन्म विक्रम संवत 1130 में माघ शुक्ल चतुर्दशी, बृहस्पतिवर को नागौर परगना के खरनाल गाँव में धौलिया जाट सरदार के घर हुआ.

तेजा जब पैदा हुए तब उनके चेहरे पर विलक्षण तेज था जिसके कारण इनका नाम रखा गया तेजा। उनके जन्म के समय तेजा की माता को एक आवाज सुनाई दी - "कुंवर तेजा ईश्वर का अवतार है, तुम्हारे साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा। "

तेजाजी के पूर्वजों की जायल के काला जाटों की पीढ़ी दर पीढ़ी शत्रुता चली आ रही थी। जायल के सरदार बालू नाग ने अपने ज्योतिषी को बुलाकर बालक का भविष्य पूछा तो बताया गया कि बालक बड़ा होनहार एवं अपरबली होगा। अन्याय, अत्याचार के खिलाफ एवं धर्म संस्थापन के पक्ष में मर मिटने वाला होगा। अपने दुश्मनों के लिए यमदूत साबित होगा। गौधन व सज्जनों के लिए देवदूत साबित होगा।

ज्योतिषियों द्वारा ऐसी भविष्यवाणी सुन खरनाल गणराज्य के दुश्मन जायलों (काला जाटों) ने भयभीत होकर जनता में अनेक तरह की अफवाहें फैलाई यथा बालक मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है, अगर बालक को रखा गया तो धौलिया वंश का नाश हो जाएगा, खरनाल गणराज्य में अकाल पड़ेगा, जनता बर्बाद हो जाएगी आदि आदि। जनता इन अफवाहों से दुखी होकर अनिष्ट की आशंकाओं से भयभीत होने लगी।


[पृष्ठ-172]: जनता ने अनिष्ट की आशंका से अन्न-जल त्याग दिया तथा शिव की आराधना करने लगी। तेजाजी के माता-पिता शंकर भगवान के उपासक थे। उन्होने भी अन्न-जल त्याग दिया और शिव की आराधना में लग गए। कहते हैं कि इस तपस्या से खुश होकर शिव-पार्वती ने तपस्यारत तेजा के माता-पिता को दर्शन दिये तथा कहा कि आपका यह पुत्र शेषावतार लक्ष्मण का अवतार है। यह गौरक्षा कर भूमि का भार उतारने आया है। आप निश्चिंत रहें किसी प्रकार की आशंका न करें। यह बालक तेरी तथा तेरे गणराज्य की कीर्ति को संसार में अमर करेगा। दिव्य-शक्ति की पहचान यह है कि इसके मुख-मण्डल का तेज झेला नहीं जाता। शंकर भगवान के वरदान से ही तेजाजी की प्राप्ति हुई है। तेजा के प्राणों पर आया संकट इस तरह शिव कृपा से टल गया। इस कारण कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है।

लीलण का जन्म: [पृष्ठ-173]: लक्खी बंजारा लाखा बालद ला कर अपना माल खरनाल के रास्ते सिंध प्रदेश ले जा रहा था। लाखा के पास शुभ लक्षणों से युक्त सफ़ेद रंग की दिव्य घोड़ी थी। उस घोड़ी के गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी। जब लाखा अपना बलद लेकर खरनाल से गुजर रहा था तभी विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की आखा तीज के दिन दोपहर सवा 12 बजे लीलण का जन्म हुआ। लीलण के जन्म लेते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गई। लाखा ताहड़ जी से परिचित था। ताहड़ जी ने उस घोड़ी की बछिया को रख लिया। उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया।



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